मन की व्यथा कहूं मैं किससे, कोई न अपना मीत यहां।
मन पंछी पिंजड़े के भीतर, इसे सुकूं अब मिले कहां।
मीठे फल के फेर में पड़ के, कर बैठा बस इतनी भूल।
समझ न पाया इस दुनिया को, यहां तो सब है सेमल फूल।
जब आया पिंजड़े के भीतर, आजादी को तब जाना।
जेल की चुपड़ी रोटी से, अच्छा है भूखे मर जाना।
एक बार का मरना अच्छा, आजादी का वरण करो।
पराधीन सपनेहुं सुख नाही, आज इसे स्मरण करो।
मानव बन मानव का बैरी, दिल पर चोट बहुत है करता।
यही सोच मैं बैठा हूं के, ऊपर वाला न्याय है करता।
सरी चोट सहूंगा दिल पे, घाव एक न दिखलाऊंगा।
मलिक तू सब देख रहा है, और किसी से न गाऊंगा।
ईश्वर तेरी लाठी में आवाज नहीं पर चोट बड़ी है।
इंतजार मैं करूंगा स्वामी, विषम घड़ी अब आन पड़ी है।
चित्र marypages.com से साभार