Sunday, May 17, 2009

न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये

जीवन अनुभव ग्रहण करने की एक प्रक्रिया है। हम जीवन-पर्यन्त अनुभव ग्रहण करते रहते हैं, उनका पुराने अनुभवों से मिलान या मूल्यांकन करते रहते हैं और यदि आवश्यकता पड़ती है तो नये मूल्यों का निर्माण करते हैं। लेकिन अक्सर होता यह है कि हमें कड़वे अनुभवों का ही चर्चायें आमतौर पर सुनने को मिलती हैं, इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हमें अच्छे अनुभव होते ही नहीं हैं बल्कि इसका कारण यह होता है कि कड़वे अनुभव हमें सीख दे जाते हैं और हमें बताते हैं कि यह अनुभव सहेज कर रख लें जिससे कि हमारी आने वाली पीढ़ी उस दर्द से बची रह सके जिसे हमने झेला है। हम अक्सर अपने कड़वे अनुभव ही आपस में साझा करते हैं इस बात में मुझे बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह की पुरानी कहानी याद आती है जिसमें डाकू खड़गसिंह एक बीमार व्यक्ति का भेष धर कर बाबा भारती का प्यारा घोड़ा हथिया लेता है। बाबा भारती के ये कथन कि "घोड़ा तो ले जाओ लेकिन इस बात की चर्चा किसी से न करना, नहीं तो लोगों का दु:खी और असहायों की सहायता करने से विश्वास उठ जायेगा।" इतने असरकारी साबित हुए कि डाकू खड़गसिंह का हृदय परिवर्तित हो गया उसने घोड़ा भी लौटा दिया और भिक्षु बन गया। बाबा भारती के शब्द पर हमें आज के समय में विचार करने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम अपने अनुभव साझा करते समय इस बात का भी ख्याल रखें कि इसका क्या परिणाम होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमारा यह अनुभव चारो तरफ अविश्वास के ही बीज-वपन करने लगे। हमारे समाचार माध्यमों की खबरों से अक्सर ऐसे "ज्ञान" अथवा "अनुभव" सामने आते हैं जो कि हमें अपने रिश्तों को शक की निगाह से देखने को मजबूर कर देते हैं। क्या ऐसा अनुभव साझा करना हमें एक अच्छे भविष्य की ओर ले जायेगा? अगर बाबा भारती दरवाजे-दरवाजे जाकर अपना दुखड़ा रोते तो उनका घोड़ा तो उन्हें कभी न मिलता लेकिन लोग यह शिक्षा जरूर ग्रहण कर लेते कि कभी किसी गरीब-दुखिया की मदद न करो न जाने कब कौन खड़गसिंह के रूप में सामने आ जाये।

Friday, May 15, 2009

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जीवन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शिक्षा जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। आदमी जन्म के पालने से लेकर मृत्यु-शय्या तक शिक्षा ग्रहण करता रहता है। अलग-अलग विद्वानों ने शिक्षा के अलग-अलग विभाग किये हैं किन्तु प्रमुखत: शिक्षा दो तरह की हो सकती है, एक तो औपचारिक जो कि एक पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार निर्धारित पाठ्यक्रम और निर्धारित समय-सीमा के अन्तर्गत दी जाती है, तथा दूसरी अनौपचारिक शिक्षा जिसे कि व्यक्ति कहीं भी किसी से भी कभी भी ग्रहण कर सकता है। जैसे कि एक कहानी में एक पराजित राजा ने मकड़ी से शिक्षा ग्रहण की और अन्तत: विजयी हुआ। यह जो बड़े-बड़े ग्रन्थ हैं जिन्हें बड़े-बड़े विद्वानों ने लिखा है यह भी अनुभवों का संकलन मात्र है जिसका हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में शिक्षा के माध्यम से होता है। इन ग्रन्थों का प्रयोजन यही होता है कि हमारी आने वाली पीढ़ी को वह दु:ख न सहने पड़ें जो कि अज्ञानतावश उन्होंने सहे हैं। किन्तु वर्तमान में यदि हम अपना अवलोकन करें तो हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है जिसमें हम पुराने अनुभवों से सीख न लेकर उस विषय पर खुद से प्रयोग करके सीखने का प्रयास करते हैं। यह अच्छी बात है किन्तु इसकी हानि भी बहुत है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि इसमें एक तो हमारा कीमती समय बर्बाद होता है साथ ही साथ कभी-कभी हम केवल प्रयोग के उपकरण मात्र बनकर रह जाते हैं या कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि हम एक प्रायोगिक श्रृंखला के सदस्य बनजाने के कारण प्रयोग के बाद अगले प्रयोग में फंसते जाते हैं और अपने जीवन को नष्ट कर देते हैं। इतना सबकुछ जानने के बाद भी हम खुद से प्रयोग करने में ही ज्यादा आस्था रखते हैं।